देश में गैर-रासायनिक खेती प्रोत्साहित करने के लिए खरीद के रास्ते भले ही जोर लगाया गया हो लेकिन वास्तविकता में सारे प्रयास अभी तक आधे-अधूरे रह गए हैं। इस बात के पर्याप्त सबूत उपलब्ध हैं कि रासायनिक खेती के मुकाबले जैविक या प्राकृतिक खेती न सिर्फ कम लागत वाला और टिकाऊ है बल्कि इसमें पर्यावरणीय और किसानों की आय के हिसाब से हर तरह से फायदा ज्यादा है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की महानिदेशक और पर्यावरणविद सुनीता नारायण ने 2 फरवरी, 2022 को “एविडेंस (2004-20) ऑन होलिस्टिक बेनिफिट्स ऑफ ऑर्गेनिक एंड नैचुरल फार्मिंग इन इंडिया” नामक रिपोर्ट जारी करते हुए कहीं। इस रिपोर्ट को देशभर में जैविक या प्राकृतिक खेती से जुड़े प्रतिनिधियों के बीच जारी किया गया। यह रिपोर्ट ऑल इंडिया नेटवर्क प्रोजेक्ट ऑन ऑर्गेनिक फार्मिंग (एआई-एनपीओएफ), 2014-2019 के परिणामों और 2010-20 के बीच प्राकृतिक या जैविक खेती को लेकर प्रकाशित 90 वैज्ञानिक अध्ययनों पर आधारित है। रिपोर्ट में इस्तेमाल स्रोत एआईएनपीओएएफ परियोजना 16 राज्यों के 20 केंद्रों पर लागू की जा रही है। इनके परिणामों की तुलना में तीन हिस्सें हैं पहला ऑर्गेनिक, दूसरा इंटीग्रेटेड (आंशिक तौर पर रसायनों का इस्तेमाल) और तीसरा इनऑर्गेनिक (रसायनों पर आधारित) खेती।
रिपोर्ट के विषय में सुनीता नारायण ने कहा कि जैविक या प्राकृतिक खेती के दृष्टिकोण और फायदे को लेकर सबूतों के आधार पर यह रिपोर्ट साफ शब्दों में बताती है कि गैर रासायनिक खेती को व्यापक विस्तार दिया जा सकता है। यह रिपोर्ट भविष्य की नीतियों के लिए एक स्पष्ट रास्ता दिखाने के बजाए सिर्फ पैदावार के जैविक या प्राकृतिक खेती के विभिन्न फायदों को समग्रता देखा जाना चाहिए। वैज्ञानिक समुदाय और नीति निर्माता इन तथ्यों पर ध्यान देंगे और गैर रासायनिक खेती को प्रोत्साहित करेंगे। वहीं, रिपोर्ट के सह-लेखक और और सीएसई में सस्टेनबल फूड सिस्टम्स प्रोग्राम के कार्यक्रम निदेशक अमित खुराना ने कहा कि बजट के तत्काल बाद आई यह रिपोर्ट एक अवसर की तरह है। हमारी रिपोर्ट इस बात के पर्याप्त सबूत सामने रखती है कि लंबी अवधि में जैविक खेती न सिर्फ फायदे वाली और टिकाऊ है बल्कि इसमें पैदावार भी अच्छी है, जो इसे जन-आंदोलन बनाने के लिए प्रोत्साहित करती है। उन्होंने कहा कि यह एक अच्छी बात हुई है कि वित्त मंत्री ने आम बजट में गैर रासायनिक खेती की जगह प्राकृतिक खेती को बढावा देने की घोषणा की है और राज्यों को भी प्रोत्साहित करने की बात कही है ताकि वह अपने कृषि विश्वविद्यालयों के सिलेबस को नए सिरे से प्राकृतिक खेती के आधार पर तैयार कर सकें। हालांकि यह एक बहुत ही छोटा कदम होगा, समय की मांग है कि बड़े कदम उठाए जाएं। खासतौर से इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिसंबर, 2021 में प्राकृतिक खेती को मास-मूवमेंट बनाने की अपील की थी।
रिपोर्ट के परिणाम बताते हैं
फसलों की पैदावार : 2014-19 के बीच 504 बार दर्ज पैदावार के परिणाम बताते हैं कि जैविक खेती के जरिए उच्चतम पैदावार 41 फीसदी फिर आंशिक रसायन आधारित एकीकृत खेती में पैदावार 33 फीसदी और रासायनिक खेती में महज 26 फीसदी पैदावार रही।
आय और आजीविका : कुल 61 फसलों में शुद्ध मुनाफा सर्वाधिक जैविक खेती में 12 केंद्रों पर 64 फीसदी रहा। जबकि चार केंद्रों पर एकीकृत यानी आंशिक रसायन आधारित खेती में शुद्ध मुनाफा 11 फीसदी और पांच केंद्रों में रायानिक खेती में शुद्ध मुनाफा 25 फीसदी रहा। वहीं, पांच वर्षों के औसतमान के आधार पर क्रॉपिंग सिस्टम में रासायनिक खेती की तुलना में जैविक खेती 67 फीसदी शुद्ध मुनाफे वाली रही।
मिट्टी का स्वास्थ्य : मिट्टी की सभी स्वास्थ्य मानकों जैसे ऑर्गेनिक कार्बन, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटैशियम के मामले में जैविक खेती ने सर्वाधिक स्कोर हासिल किया। यहां तक कि सॉयल बल्क डेन्सिटी, मिट्टी के जीवाणु, कवक, सूक्ष्म पोषक आदि तत्वों में भी समान परिणाम मिले। रिपोर्ट के सह-लेखक अमित खुराना ने कहा कि यह चौंकाने वाला है कि सरकार के प्राकृतिक खेती को लेकर खुद के ऑल इंडिया नेटवर्क प्रोजेक्ट में यह सारे परिणाम मिले हैं जो कई वर्षों से पब्लिक डोमेन में उपलब्ध हैं।
इसके बावजूद इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। यह भी चिंता का विषय है कि जैविक खेती का समूचा मुद्दा आय और आजीविका व मिट्टी के स्वास्थ्य को छोड़कर सिर्फ पैदावार पर ही टिका रहा। सीएसई के सस्टेनबल फूड सिस्टम प्रोग्राम के मैनेजर और रिपोर्ट के सह लेखक अभय कुमार सिंह ने कहा कि मुनाफे और टिकाऊपन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैविक खेती अन्य सभी खेती माध्यमों से एक बढ़िया विकल्प है।
वहीं, रिपोर्ट के सह-लेखक अब्दुल हलीम ने कहा कि इस बात के सबूत है कि नैचुरल फार्मिंग कम लागत के साथ ज्यादा अच्छी फसल, ऊर्जा और पानी की बचत वाला है। जो कि जलवायु शमन और जैवविविधता के लिए भी बेहतर है। इस मौके पर आईसीएआर के रवि सिंह ने कहा कि विभिन्न क्षेत्रों की इकोलॉजी और परिस्थितियों के हिसाब से जैविक खेती के प्रोत्साहन को लेकर केंद्र और राज्य की विभिन्न योजनाएं लागू की जा रही है। उन्होंने बताया कि यदि बिना वैज्ञानिक अध्ययन के किसी खेत में ऑर्गेनिक फार्मिंग की तरफ बढते हैं तो पैदावार में गिरावट आती है। इसे हम ट्रांजिशन पीरिएड्स कहते हैं। खरीफ और ग्रीष्म सीजन में ऑर्गेनिक फार्मिंग के बेहतर परिणाम मिले हैं लेकिन रबी सीजन की फसलों में सीमित परिणाम हासिल हुए हैं। रबी सीजन के लिए ध्यान से मिट्टी और अन्य चीजों का प्रबंधन करना होगा।
उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर से किसान भारत भूषण त्यागी ने कहा कि हम ऑर्गेनिक फार्मिंग की बात करें तो यह ध्यान रखना चाहिए कि भूमि की उवर्रता मिट्टी, पानी और बीज पर निर्भर करती है। मौसम बदलते हैं वैसे-वैसे मिट्टी और माइक्रोबॉयलोजी खुद से बदलाव करती है। खेती में असल निवेश समझदारी और श्रम है। इनपुट बेस ऑर्गेनिक फार्मिंग ज्यादा फायदे वाली बात नहीं है। खेत एक, फसल अनेक में कार्बन और माइक्रोबायोलॉजी बेहतर होती है। बीजों का नैसर्गिक संरक्षण एक अहम मुद्दा है। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसी नीति हो जिसमें ऑर्गेनिक खेती की साफ-साफ परिभाषा लिखी जाए, क्योंकि जैविक और प्राकृतिक खेती जैसे कई तरह के नामों और लक्ष्यों से यह भटकाव की तरफ बढ़ जाता है।
कार्यक्रम में हरियाणा के हैवेनली फार्म्स के हरपाल सिंह गेरवाल ने कहा कि मौजूदा खेती-किसानी एग्रीकल्चर नहीं बल्कि केमिकल्चर है। रसायनों की खेती है। ऑर्गेनिक जैसे शब्दों को आज प्रयोगशालाओं में कैद कर लिया गया है जबकि मेरा मानना है कि हम जो कुछ उगाते हैं यदि उसका किसी भी तरह का नुकसान नहीं है तो ही वह प्राकृतिक या जैविक खेती है। आज जो भी जैविक खेती के जरिए उगाया जा रहा हैं उसकी इनपुट्स और पैदावार को बहुत ध्यान से देखना और समझना होगा। गेरवाल ने कहा कि 2011 में खाद्य बिल लाया गया था, इसे लागू नहीं किया गया है। यदि इसे लागू किया जाए तो ऑर्गेनिक खेती का रास्ता सुगम हो सकता है।
उत्तर प्रदेश के बिजनौर से किसान शूरवीर सिंह ने कहा कि खेती का केंद्र मनुष्य को नहीं बल्कि प्रकृति को रखना चाहिए। फलों और सब्जियों जिनमें रसायनों का छिड़काव किया जा रहा है हम उन बागों को भी जैविक बना रहे हैं।
तेलंगाना के सेंटर फॉर सस्टेनबल एग्रीकल्चर के जीवी रामजेनयुलू ने कहा कि यह चौंकाने वाला है कि आईसीएआर के कृषि वैज्ञानिक खुद अपनी वैज्ञानिक रिपोर्ट पर अमल नहीं कर रहे। जैविक खेती के लिए एक इक्विटेबल सपोर्ट सिस्टम होना चाहिए और किसानों को उनकी पसंद की खेती का विकल्प मिलना चाहिए।
राजेंद्र चौधरी ने बताया कि सीएसई की रिपोर्ट यह बताती है कि जैविक खेती के पैदावार के संबंध में पर्याप्त सबूत मौजूद हैं लेकिन सरकारों ने इस पर कभी ध्यान नहीं दिया। लेकिन यह मैं कहना चाहता हूं कि आईसीएआर के कृषि वैज्ञानिकों के निष्कर्षों पर आधारित यह शोध ग्रंथ यह भी बताता है कि खुद कृषि वैज्ञानिक भी जैविक खेती को लेकर अपनी सिफारिशों पर अमल नहीं कर रहे हैं। हमें यह ध्यान देना चाहिए कि ऑर्गेनिक फार्मिंग में कई तरह के तरीके हैं इन्हें एक साथ नहीं रखना चाहिए, मिसाल के तौर पर लोग मोनोक्रॉप और डायवर्स क्रॉप की खेती कर रहे हैं। ऐसे में इसके परिणाम भी अलग-अलग होने चाहिए।
महाराष्ट्र के यवतमाल से किसान सुभाष शर्मा ने बताया कि उन्होंने ऑर्गेनिक फार्मिंग के जरिए न सिर्फ अपनी मिट्टी के ऑर्गेनिक कार्बन को बेतर किया है बल्कि मुनाफे से ज्यादा पानी की बचत और पर्यावरण को बेहतर बनाया है। टिकाऊ खेती के लिए उन्हें शुरू में गोबर की खाद और मोनोक्रॉप के साथ डायवर्स क्रॉप को लेकर पैसा खर्च करना पड़ा है लेकिन अब बेहतर परिणाम मिलना शुरु हो चुका है।
उड़ीसा से सेंटर फॉर इंटडिस्पलनरी स्टडीज के डेबाल देब ने कहा कि जैविक खेती का आकलन मार्केट बेस्ड मुनाफा पर ही नहीं बल्कि एनवायर्मेंटल बेनिफिट पर केंद्रित होना चाहिए।
तमिलनाडु के कीस्टोन फाउंडेशन से मैथ्यू जॉन ने कहा कि कंज्यूमर अगर प्रतिक्रिया नहीं देते हैं और उपभोग की आदत को नहीं बदलते हैं तो यह मुश्किल भरा होगा। बहुत बार हम एक ग्राहक के तौर पर सस्ते जैविक खाद्य सामाग्री की मांग करते हैं। हमें इस चीज पर ध्यान केंद्रित करना होगा।
सुल्तान इस्माइल ने कहा कि बहुत सारी परिभाषाओं में फंसने के बजाए हमें रासायनिक और गैर रासायनिक खेती की बात करनी चाहिए।