रिकांगपियो। हिमालयन वन अनुसंधान संस्थान, शिमला द्वारा नाबार्ड वित्त पोषित परियोजना “परागणकों एवं उनके खाद्य पौधों के संरक्षण को बढ़ावा देने वाली पद्धतियों से समुदायों की क्षमता निर्माण” के अंतर्गत किन्नौर के पूह वन मंडल में एक दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया। इसमें 85 किसान एवं बागवान, वन परिक्षेत्र के अधिकारी (पूह) एवं वन कर्मी शामिल रहे।
डॉ.पवन कुमार, वैज्ञानिक-ई एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम के समन्वयक ने प्रशिक्षण कार्यक्रम के मुख्य अतिथि विजय नेगी, जिला विकास प्रबंधक (नाबार्ड) एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग ले रहे सभी प्रतिभागियों का स्वागत तथा अभिनंदन किया। डॉ. कुमार ने “परागणकों एवं कीटों के महत्त्व” पर जानकारी भी साँझा की एवं परियोजना के कार्य योजना के बारे में प्रतिभागियों को अवगत कराया।
डॉ. स्वर्ण लता, वैज्ञानिक -डी ने हिमालयन वन अनुसंधान संस्थान द्वारा चलाई जा रही वानिकी अनुसंधान गतिविधियों तथा “जैव विविधता के संरक्षण तथा आजीविका सुधार में परागणकों की भूमिका” के बारे विस्तृत जानकारी दी।
प्रशिक्षण कार्यक्रम में मुख्य अतिथि विजय नेगी, जिला विकास प्रबंधक, नाबार्ड द्वारा वर्तमान में किन्नौर में चलाई जा रही विभिन्न परियोजनाओं के बारे में अवगत कराया गया। उन्होंनें नाबार्ड द्वारा वित्त पोषित परियोजना के माध्यम से करवाए जाने वाले प्रशिक्षण एवं अन्य गतिविधियों का स्थानीय समुदाय को होने वाले लाभ पर जोर दिया।
पूह वन मंडल के विषय वस्तु विशेषज्ञ (बागवानी) डॉ देव राज कैथ ने बताया की मधुमक्खी पालन और शहद प्रसंस्करण सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों में से एक है, जो वनों के अनुकूल है। कई पारिस्थितिक तंत्रों में, मधुमक्खियाँ महत्वपूर्ण परागणक हैं। लंबे समय से कृषि ने मधुमक्खियों द्वारा परागण के महत्व को पहचाना है। भारत में, लगभग सोलह लाख लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मधुमक्खी पालन और संबद्ध गतिविधियों में लगे हुए हैं। देश में शहद उत्पादक राज्यों में पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और शामिल हैं। मधुमक्खी पालन देश में मुख्य रूप से वन आधारित रहा है। इस प्रकार, उत्पादन के लिए कच्चा माल प्रकृति से शहद प्राप्त किया जा रहा है। अपने व्याख्या में आगे कहा की भारत में मधुमक्खी पालन और शहद प्रसंस्करण इकाइयों को विभिन्न आंतरिक और बाहरी कारणों से गंभीर चुनौतियों जैसे फसल विविधीकरण का अभाव, फलों और सब्जियों के तहत कम क्षेत्र, फूलों की कमी / कमी की अवधि, कृषि और अन्य फसलों में रसायनों का अत्यधिक उपयोग वैज्ञानिक प्रबंधन प्रथाओं का अभाव तथा जलवायु परिवर्तन का सामना करना पड़ रहा है।